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com/ क तु त :
जन-गण-मन
जे ' ज' क ग़ज़ल
भू मका
सम 'जन-गण-मन' क ग़ज़ल
'जन-गण-मन' सप
ु र चत ह द ग़ज़लकार जे ' ज' क छ पन (56) ग़ज़ल का पहला
संकलन है.
ग़ज़ल जैसे फ़ारसी-उद ू के का य- प के त ह द म जो नया वातावरण तैयार हआ ु
है, न य ह इसका मख
ु ेय वग य द ु यंत कमार
ु को जाता है. हालाँ क द ु यंत कमार
ु
के पहले, ह द म ग़ज़ल रचना का शभारं
ु भ हो चका
ु था. केवल आधु नक यग
ु क ह बात
कर तो भारते द,ु ब नारायण चौधर , ताप नारायण म ,नाथू राम शमा 'शंकर', जय शंकर
' साद' नराला, डा. शमशेर बहादरु सं ह, लोचन,जानक व लभ शा ी,बलबीर सं ह 'रं ग'
आ द ने ह द ग़ज़ल के त अपनी च और रचना का प रचय दया था . ले कन, उ
क वय क ग़ज़ल जन-मानस म आटे म नमक क तरह का ह भाव उ प न कर सक ं.
ह द ग़ज़ल को एक यगा
ु तरकार का य वधा के प म त त करने का ेय द ु यंत
कमार
ु को ह जाता है . ले कन 1975 म द ु यंत के अनायास दे हावसान के दस वष बाद तक
भी कछ
ु लोग कहते रहे क ह द ग़ज़ल द ु यंत-काल म ह क़दमताल कर रह है.ऐसे
कथन नि त ह आ ह से यु एवं अ त यो पण
ू थे. द ु यंत कमार
ु के दे हावसान-काल
से अब तक द ु नया भी आगे बढ़ है और ह द ग़ज़ल भी . जीवन, समाज, सं कृ त,और
यथाथ के अनेक प रपे य का उ ाटन हआ
ु है. चेतना के नये तर क न म त हई ु है.
कला-सा ह य के े म अभ य क नई चनौु तयाँ उभर ह. यथाथ पहले से अ धक
सघन एवं संि हआ
ु है.
िजन संजीदा ह द ग़ज़लकार ने , मंच या न बाज़ार
् का ह सा न बनते हए
ु ,
अनशासन
ु ,एका ता और आ यं तकता के साथ दे श के भ न- भ न ह स म बैठकर
अ छ ग़ज़ल कह ह- उस फ़ेह र त म ग़ज़लकार जे ' ज' का नाम सस मान
शा मल कया जा सकता है., य क वे वगत तेइस वष से मारं डा (पालमपरु) ,रोहड़ू,
हमीरपरु, कांगड़ा और धमशाला जैसे पवतीय े म नवास करते हए ु अ छ ग़ज़ल कह
रहे ह- जहाँ व तत
ु : ग़ज़लगोई का कोई उ साह-वधक माहौल नह .ं न संदेह,
'ये फल
ू स त चटान के बीच खलते ह
ये वो नह ं िज ह माल क दे खभाल लगे.'
जे ' ज' अँ ेज़ी के ा यापक ह-व ज़वथ,क स, शैल से ले कर आधु नक आँ ल-
सा ह य के अ येता. ग़ज़ल केवल उनक वैचा रक- भावभू म क ह अ भ य नह ं, उसे
कला मक- तर पर भी उ ह ने आ मसात कया है. जे क ग़ज़ल म एक वशेष
क़ म क आंत रकता, समझ, सला हयत, सू मता और सघनता को महसस
ू कया जा
सकता है.ये बात सच है क जे ' ज' ग़ज़ल के मामले म कसी 'उ ताद' के फेर म
नह ं पड़े. फर भी, गज़ल को ले कर उनक िज ासाएँ, उनके अ वेषण, उनके योग को, वे
दे श के गणी
ु ग़ज़लकार से मल- बाँटकर,समझते-बझते
ू … प करते रहे ह. इसके कहने के
े म अपने-आपको 'ता लब-ए-इ म' ( व ाथ ) समझते रहने क सहजता उनके रचनाकार
-क़द को बढाती ह है.
भाषाई तर पर जे ' ज' द ु यंत -कल
ु के ग़ज़लकार ह. ह द और उद ू के बीच
संतुलन क़ायम करने वाले. जे क ग़ज़ल का भाषाई- लहज़ा सादा और साफ़ है. दस
ू रे
श द म कह तो ये ग़ज़ल ह द ु तानी ठाठ क ग़ज़ल ह .
जहाँ तक शे'र म परसी गई वषय-व तु का सवाल है तो ज ' ज' का 'कै वस' क़ाफ़
व तत
ृ है. जैसा क ग़ज़ल-सं ह के शीषक से प है -उनक ग़ज़ल सम 'जन-गण-मन'
क ग़ज़ल ह.सामािजक, राज न तक,सां कृ तक एवं आ थक मोच पर तमाम बेचैन सवाल
उठाती हु . ऐसा नह ं है क पहाड़ म रहकर ज पहाड़ क बात नह ं करते. ले कन
उनका 'पहाड़' हमाचल तक सी मत नह .ं जा त, मज़हब,रं ग,न ल औए फ़रक़ापर ती क
सयासत के ख़लाफ़ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ क क ठन िज़ दगी म
ख़न
ू (पसीने) से सींचे गए खेत क उपज का बँटवारा ठ क-ठ क होने क चेतावनी भी उनके
शे'र म है. कल
ु मला कर, उनक ग़ज़ल ग तशील और जनवाद चेतना से लैस जाग क
ग़ज़ल ह .,जो क पल क शैल म प ल वत होती ह. उनके अ दर ग़ज़ल क
का या मकता क हफ़ाज़त करने क अ व ांत च ता भी दखाई दे ती है-जो न संदेह
वागत-यो य है.
ज़ह र क़रे
ु शी
14 जनवर , 2003
(मकर सं ां त)
समीर काटे ज, बी-21 सयनगर
ू ,
श द ताप आ म के पास
वा लयर-474012(म य दे श)
1.
ख़द
ु तो ग़म के ह रहे ह आ माँ पहाड़
ले कन ज़मीन पर ह बहत
ु मेहरबाँ पहाड़
ह तो बल
ु द हौसल के तजुमाँ पहाड़
पर बेबसी के भी बने ह कारवाँ पहाड़
सीने सलग
ु के हो रहे ह गे धआँ
ु -धआँ
ु
वालामखी
ु तभी तो हए
ु बेज़बाँ पहाड़
प थर-सलेट म लटा
ु कर अि थयाँ तमाम
मानो दधी च-से खड़े ह िज मो-जाँ पहाड़
2.
अँधेरे चंद लोग का अगर मक़सद नह ं होते
यहाँ के लोग अपने आप म सरहद नह ं होते
न भलो
ू , तमने
ु ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छ नी ह
हमारा क़द नह ं लेते तो आदमक़द नह ं होते
चले ह घर से तो फर धप
ू से भी जझना
ू होगा
सफ़र म हर जगह सु दर- घने बरगद नह होते
3.
बंद कमर के लए ताज़ा हवा लखते ह हम
खड़
़ कयाँ ह हर तरफ़ ऐसी दआ
ु लखते ह हम
4.
बराबर चल रहे हो और फर भी घर नह ं आता
तु ह यह सोचकर लोगो, कभी या डर नह ं आता
अगर ग लय म बहते ख़न
ू का मतलब समझ लेते
तु हारे घर के भीतर आज यह लशकर नह ं आता
तु हारे दल सलगने
ु का यक़ ं कैसे हो लोग को,
अगर सीने म शोला है तो य बाहर नह ं आता
5.
हर क़दम पर खौफ़ क सरदा रयाँ रहने लग
क़ा फ़ल म जब कभी ग़ ा रयाँ रहने लग
नीयत बद और कछ
ु बदका रयाँ रहने लग
सरहद पर य न गोलाबा रयाँ रहने लग
है महक मम
ु कन तभी सारे ज़माने के लए
सोच म ' ज', कछ
ु अगर फलवा
ु रयाँ रहने लग.
6.
यह उजाला तो नह ं 'तम' को मटाने वाला
यह उजाला तो उजाले को है खाने वाला
आग ब ती म था जो श स लगाने वाला
रहनमा
ु भी है वह आज कहाने वाला
रा ता अपने ह घर का नह ं मालम
ू िजसे
सबको मंिज़ल है वह आज दखाने वाला
ख़द
ु ह जल-जल के उजाले ह जटाए
ु िजसने
वो अँधेर का नह ं साथ नभाने वाला
आईना ख़द
ु को समझते है बहतु लोग यहाँ
आईना कौन है ' ज', उनको दखाने वाला.
7.
पर को काट के या आसमान द िजएगा
ज़मीन द िजएगा या उड़ान द िजएगा
रह ह धप
ू से अब तक यहाँ जो नावा क़फ़
अब ऐसी बि तय पे भी तो यान द िजएगा
है ज़लज़ल के फ़सान का बस यह वा रस
सख़न
ु को आप नई -सी ज़बान द िजएगा
कभी के भर चक
ु े ह स के ये पैमाने
ज़रा-सा सोच-समझकर ज़बान द िजएगा
जनँ
ु ू के नाम पे कट कर अगर है मर जाना
ये पजा
ू कसके लए, य अज़ान द िजएगा
अजीब श है शहर-ए-वजद
ू भी यारो
क़दम-क़दम पे जहाँ इ तहान द िजएगा
ये शायर तो नमाइश
ु नह ं है ज़ म क
फर ऐसी चीज़ को कैसे दकान
ु द िजएगा
जो बचना चाहते हो टट
ू कर बखरने से
' ज', अपने पाँव को कछ
ु तो थकान द िजएगा
8.
हमार आँख के वाब से दरू ह र खे
सवाल ऐसे जवाब से दरू ह र खे
सलगती
ु रे त पे चलने से कैसे कतराते
जो पाँव बट
ू -जराब
ु से दरू ह र खे
हनर
ु तो था ह नह ं उनम जी-हज़र
ु ू का
इसी लए तो ख़ताब से दरू ह र खे
तमाम उ वो ख़शब
ु ू से ना-शनास रहे
जो ब चे ताज़ा गलाब
ु से दरू ह र खे
9.
इ ह ं हाथ ने बेशक व का इ तहास ल खा है
इ ह ं पर चंद हाथ ने मगर सं ास ल खा है
जहाँ तम
ु आजकल स प नता के गीत गाते हो
अभाव का वहाँ तो आज भी आवास ल खा है
10.
तहज़ीब यह नई है , इसको सलाम क हए
'रावण' जो सामने हो, उसको भी 'राम' क हए
जादगर
ू म उनको , अब है कमाल हा सल
उनको ह 'राम' क हए, उनको ह ' याम' क हए
मौजद
ू जब नह ं वो ख़द
ु को खदा
ु सम झए
मौजदगी
ू म उनक , ख़द
ु को ग़लाम
ु क हए
यह मु क का मक़
ु र, ये आज क सयासत
मु लाओं म हई
ु है , मग़
ु हराम क हए
कह ं ह ख़न
ू के जोहड़ , कह ं अ बार लाश के
समझ अब ये नह ं आता ये कस मंिज़ल के र ते ह
तु हारे वाब क ज नत म मं दर और मि जद ह
हमारे वाब म ' ज" सफ़ रोट - दाल बसते ह.
12.
हुज़ूर, आप तो जा पहँु चे आसमान म
ससक रह है अभी िज़ दगी ढलान म
जले ह धप
ू म, आँगन म, कारख़ान म
अब और कैसे गज़र
ु हो भला मकान म
हई
ु ह मु त आँगन म, वो नह ं उतर
जो धप
ू ् रोज़ ठहरती है सायबान म
जगह कोई जहाँ सर हम छपा
ु सक अपना
हम अब भी ढँू ढ फरते ह सं वधान म
हज़ार हादस से जझ
ू कर ह हम िज़ दा
दबे ह रे त म मलबे म या खदान म
हए
ु यँू रात से वा क़फ़ क शौक़ ह न रहा
सहर क शोख़ बयार क दा तान म
13.
जाने कतने ह उजाल का दहन होता है
लोग कहते ह यहाँ रोज़ हवन होता है
जब धआँ
ु साँस क चौखट पे ठहर जाता है
तब हवाओं को बलाने
ु का जतन होता है
बस यह वाब फ़क़त जम
ु रहा है अपना
ऐसी धरती क जहाँ अपना गगन होता है .
14.
कटे थे कल जो यहाँ जंगल क भाषा म
उगे ह आज वह च बल क भाषा म
नद को पी के सम दर हआ
ु खमोश मगर
नद क बहती रह कलकल क भाषा म
रहे न यथ ह चप
ु ठँू ठ सखे
ू पेड़ के
सलग
ु उठे वह दावानल क भाषा म
15.
पृ तो इ तहास के जन-जन को दखलाए गए
खास जो संदभ थे ,ज़बरन वो झठलाए
ु गए
16.
बेशक बचा हआ
ु कोई भी उसका 'पर' न था
ह मत थी हौसला था प र दे को डर न था
धड़ से कटा के घमते
ू ह आज हम िजसे
झकता
ु कभी ये झठ
ू के पैर पे सर न था
कदम क धल
ू चाट के छना
ू था आसमान
थे हम भी बाहनर
ु मगर ऐसा हनर
ु न था
भला
ू सहर का शाम को लौटा तो था मगर
जाता कहाँ वो घर म कभी मु तज़र न था
सरज
ू का एहतराम कया उसने उ भर
िजसका कह ं भी धप
ू क ब ती म घर न था
17.
दे ख, ऐसे सवाल रहने दे
बेघर का ख़याल रहने दे
तेर उनक बराबर कैसी
तू उ ह तंग हाल रहने दे
उनके होने का कछ
ु भरम तो रहे
उनपे इतनी तो खाल रहने दे
मछ लयाँ कब चढ़ ह पेड़ पर
अपना न दया म जाल रहने दे
या ज़ रत यहाँ उजाले क
छोड़, अपनी मशाल रहने दे
भल
ू जाएँ न तेरे बन जीना
बि तय म वबाल रहने दे
वो तझे
ु आईना दखाएगा ?
उसक इतनी मज़ाल, रहने दे
18.
उनका व तार ह नह ं होता
तू जो आधार ह नह ं होता
बीच मँझधार ह नह ं होता
तू जो पतवार ह नह ं होता
जो शरण म गनाह
ु करता है
वो गनहगार
ु ह नह ं होता
जब प र दे कतर
ु सके पं जरा
यह चम कार ह नह ं होता
जो मखौटा
ु कोई हटा दे ता
तो वो अवतार ह नह ं होता
शराफ़त के मक़ा
ु बल हज़ार शा तर ह
अब इस से स त कोई इ तेहाँ नह ं दे खा
त ल मी रौशनी से जझते
ू भी या पंछ
कभी िज ह ने खला
ु आ माँ नह ं दे खा
खड़े थे धप
ू म तनकर, बने रहे बरगद
सर पे िजन के कोई सायबाँ नह ं दे खा
ये मु क बढ़ रहा है पू छए न कस जा नब
बग़ैर मंिज़ल के कारवाँ नह ं दे खा नह ं दे खा
खदाया
ु , ख़ैर हो, ब ती म आज फर हमने
कसी के घेर से भी उठता धआँ
ु नह ं दे खा
20.
नींव जो भरते रहे ह आपके आवास क
िज़ दगी उनक कथा है आज भी बनवास क
तोड़कर मासम
ू सपने आने वाल पौध के
नींव र खगे भला वो कौन से इ तहास क
वह तो उनके शोर म ह डब
ू कर घु ता रहा
क़हक़ह ने कब सनी
ु दा ण कथा सं ास क
तब यक़ नन एक बेहतर आज मल पाता हम
पोल खल
ु जाती कभी जो झठ
ू के इ तहास क
21.
आपक क ती म बैठे , ढँू ढते सा हल रहे
सोचते ह अब क हम तो आज तक जा हल रहे
जब गनहगार
ु के सर पर आपका ह हाथ है
वो तो मंु सफ़ ह रहगे , वो कहाँ क़ा तल रहे ?
िज़ दगी कछ
ु आँकड़ का खेल बन कर रह गई
और हम इन आँकड़ का दे खते हा सल रहे
मु त से हम तो यारो ! एक भारतवष ह
आप ह पंजाब या क मीर या ता मल रहे
आपसे जड़
ु कर चले तो मंिज़ल से दरू थे
आपसे हट कर चले तो जा नब-ए-मंिज़ल रहे .
22.
उसके इरादे साफ़ थे, उसक उठान साफ़
बेशक उसे न मल सका ये आसमान साफ़
सारे गनाह
ु क़ा तल के फर करे मआफ़
ु
फर कर सबत
ु ू वो गम
ु सब नशान साफ़
घेरे हए
ु हज़र
ु ू को ह जी-हज़र
ु ू जब
कैसे सनगे
ु ाथना या फर अज़ान साफ़
उसका क़सर
ु ू इतना ह था वो था च मद द
आँख से रौशनी गई मँुह से ज़बान साफ़ .
23.
सामने काल अँधेर रात गराती
ु रह
रौशनी फर भी हमारे संग ब तयाती रह
खरदरे
ु हाथ से लेकर पाँव के छाल तलक
रो टय क कामना या- या न दखलाती रह
यहाँ कछ
ु सर फर ने हा दस क धंुध बाँट है
नज़र अब इस लए दलकश कोई मंज़र नह ं आता
जो सरज
ू हर जगह संद
ु र- सनहर
ु धप
ू लाता है
वो सरज
ू य हमारे शहर म अ सर नह ं आता
अगर इस दे श म ह दे श के दशमन
ु नह ं होते
लटेु रा ले के बाहर से कभी ल कर नह ं आता
जो ख़द
ु को बेचने क फ़तरत हावी नह ं होतीं
हम नीलाम करने कोई भी त कर नह ं आता
25.
फ़ ल सार आप बेशक अपने घर ढलवाइए
ु
चंद दाने मेरे ह से के मझे
ु दे जाइए
तैर कर ख़द
ु पार कर लगे यहाँ हम हर नद
आप अपनी कि तय को दरू ह ले जाइए
रतजगे मिु कल हए
ु ह अब इन आँख के लए
ख़ म कब होगी कहानी ये हम बतलाइए
26.
सबह
ु -सबह
ु यहाँ मरझाई
ु हर कल बाबा !
ये दन म रात-सी कैसी है अब ढल बाबा !
हए
ु थे पढ़ के िजसे तम
ु कभी वल बाबा !
कताब आज वो हमने भी बाँच ल बाबा !
गज़ार
ु द है यँू काँट पे िज़ दगी हमने
न रास आएगी अब राह मखमल बाबा !
सबतू गम
ु हए
ु सारे गवाह बी गम
ु -सम
ु
गनाह
ु पालने क अब हवा चल बाबा !
27.
जो लड़ जीवन क सब संभावनाओं के ख़लाफ़
हम हमेशा ह रहे उन भू मकाओं के ख़लाफ़
ठ क भी होता नह ं मर भी नह ं पाता मर ज़
क िजए कछ
ु तो दवा ऐसी दवाओं के ख़लाफ़
आ ख़र प े ने बेशक चम
ू ल आ ख़र ज़मीन
पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़लाफ़
28.
हर घड़ी र दा दख
ु क भीड़ ने सं ास ने
साथ अपना पर नह ं छोड़ा सनहर
ु आस ने
आ ासन, भख
ू , बेकार , घटन
ु , धोखाधड़ी
हाँ, यह सब तो दया है आपके व ास ने
जल रहा था ' रोम ' , ' नीरो ' था रहा बंसी बजा
हाँ मगर, उसको कभी ब शा नह ं इ तहास ने.
29.
अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा
और उसके पास या है जो नया दे जाएगा
क़ ल कर के ख़द
ु तो वो छप
ु जाएगा जाकर कह ं
और सारे बेगुनाह का पता दे जाएगा
30.
दल-ओ- दमाग़ को वो ताज़गी नह ं दे ते
ह ऐसे फल
ू जो ख़ु बू कभी नह ं दे ते
ये चाँद ख़द
ु भी तो सरज
ू के दम से क़ायम ह
ये अपने बल पे कभी चाँदनी नह ं दे ते
31.
सा थयो ! व य को नभ क होना चा हए
आपका हर श द इक तहर क होना चा हए
खेत जो अब तक हमारे ख़न
ू से सींचे गए
दो त , बँटवारा उपज का ठ क होना चा हए
श द मज़ से चन
ु , ये आपका अ धकार है
श द अथ के मगर नज़द क होना चा हए.
32.
दल क टहनी पे प य जैसी
शायर बहती न य जैसी
याद आती है बात बाबा क
उसक तासीर , आँवल जैसी
जब कभी -ब-हए
ु ख़द
ु के
अपनी सरत
ू थी क़ा तल जैसी
तू भी ख़द
ु से कभी मख़ा
ु तब हो
कर कभी बात शायर जैसी
िज़ दगानी कड़कती धप
ू भी थी
और छाया भी बरगद जैसी
33.
इन बि तय म धल
ू -धआँ
ु फाँकते हए
ु
बीती तमाम उ यँू ह खाँसते हए
ु
कछ
ु प थर के बोझ को ढोना है लािज़मी
जी तो रहे ह लोग मगर हाँफते हए
ु
ढाँपे ह हमने पैर तो नंगे हए
ु ह सर
या पैर नंगे हो गए सर ढाँपते हएु
दे ता नह ं ज़मीर भी कछ
ु ख़ौफ़ के सवा
डर-सा लगे है इस कएँ
ु म झाँकते हए
ु
34.
उनक आदत बलं
ु दय वाल
अपनी सीरत है सी ढ़य वाल
हमपे कछ
ु भी लखा नह ं जाता
अपनी क़ मत है हा शय वाल
भखे
ू ब चे को माँ ने द रोट
चंदा मामा क लो रय वाल
आज फर खो गई है द तर म
तेर अज़ शकायत वाल
तू इसे सन
ु सके अगर, तो सन
ु
यह कहानी है क़ा फ़ल वाल
भल
ू जाते , मगर नह ं भले
ू
अपनी बोल मह बत वाल .
35.
मत बात दरबार कर
सीधी चोट करार कर
अब अपने आँसू मत पी
आह को चं गार कर
काट द:ु ख के सर तू भी
अपनी ह मत आर कर
अपने दल के ज़ म -सी
काग़ज़ पर फलकार
ु कर
आना है फर जाना है
अपनी ठ क तैयार कर
मीठ है फर ेम-नद
मत इसको यँू खार कर.
36.
िज़ दगी से उजाले गए
े ष जब-जब भी पाले
बाँटने जो गए रौशनी
उनपे प थर उछाले गए
फ़ ल है यह वह दे खए
बीज िजसके थे डाले गए
बत
ु बने या खलोने हए
ु
लोग साँच म ढाले गए
लेकर आए जो संवेदना
वो क़फ़न भी उठा ले गए
अब सफ़र है कड़ी धप
ू का
पेड़ सब काट डाले गए
क़ा तल के वो सरदार थे
क़ा तल को छड़ा
ु ले गए
एक भी हल नह ं हो सका
लाख उछाले गए
वो समंदर हए
ु उनम जब
न याँ और नाले गए.
37.
कैसी रह बहार क आमद न पू छए
इन मौसम के सा थयो मक़सद न पू छए
ये तो ख़दा
ु के राम के बंदे ह इनसे आप
पजा
ू -घर के टटते
ू गंब
ु द न पू छए
इस यग
ु म हो गया है चलन ' बोनसाई ' का
यारो, कसी भी पेड़ का अब क़द न पू छए
है आज भी वह ं का वह ं आम आदमी
कस बात पर मखर
ु है ये संसद न पू छए
38.
अँधेर क सयाह को तु ह धोने नह ं दगे
भले लोगो ! ये सरज
ू रौशनी होने नह ं दगे
जमीं ह हर गल म ख़न
ू क दे खो ,कई परत
मगर दं गे कभी इनको तु ह धोने नह ं दगे
39.
हाँफ़ता दल म फ़साना और है
काँपता लब पर तराना और है
जगनओं
ु ु -सा टम टमाना और है
पर दए-सा जगमगाना और है
कछ
ु नए स क़े चलाना और है
और फर उनको भनाना
ु और है
ठ क है चलना परानी
ु राह पर
हाँ , नई राह बनाना और है
40.
राज महल के न म जो भी गाते ह
उन के दामन महर
ु से भर जाते ह
ढल जाता है सरज
ू क उ मीद म दन
ऐसे भी तो फल
ू कई मरझाते
ु ह
पाए ह जो सच कहने क को शश म
अब तक उन ज़ म को हम सहलाते ह
ब ती के कछ
ु लोग ख़फ़ा ह गीत से
फर भी ह कछ
ु लोग यहाँ जो गाते ह
41.
आसमान म गरजना और है
पर ज़मीं पे भी बरसना और है
सफ़ तट पर ह टहलना और है
और लहर म उतरना और है
दल म शोल का सलगना
ु और है
और शोल से गज़रना
ु और है
बज लयाँ बन टट
ू गरना और है
बज लयाँ दल म लरज़ना और है
रतजगे मज़ से करना और है
रोज़ नींद का उचटना और है
है जदा
ु घर म उगाना कै टस
रोज़ काँट म गज़रना
ु और है
ख़शबओं
ु ु से ढाँपना ख़द
ु को जदा
ु
पर पसीने से महकना और है
इस घटन
ु म साँस लेना है अलग
आग सीने म सलगना
ु और है
42.
सबक बोल है ज़लज़ले वाल
या कर बात सल सले वाल
बात हँसते हए
ु कह कैसे
यातनाओं के सल सले वाल
कल वो अख़बार क बनी सख़
ु
एक औरत थी हौसले वाल
43.
पवत जैसी यथाएँ ह
'प थर ' से ाथनाएँ ह
मक
ू जब संवेदनाएँ ह
सामने संभावनाएँ ह
रा त पर ठ क श द के
दनदनाती वजनाएँ ह
सािज़श ह 'सय
ू ' हरने क
ये जो 'तम' से ाथनाएँ ह
हो रहा है सय
ू का वागत
आँ धय क सचनाएँ
ू ह
घमते
ू ह घा टय म हम
और काँध पर ' गफ़ाएँ
ु 'ह
आदमी के र पर पलतीं
आज भी आ दम थाएँ ह
फल
ू ह हाथ म लोग के
पर दल म ब ुआएँ ह
वाथ के रा ते चल कर
डगमगाती आ थाएँ ह
ये मनोरं जन नह ं करतीं
य क ये ग़ज़ल यथाएँ ह
44.
चार दन इस गाँव म आकर पघल जाते ह आप
पर पहँु च कर शहर म कतने बदल जाते ह आप
कि
ु तय खेल के चसके आपको भी खब
ू ह
शेर बकर पर झपटता है बहल जाते ह आप
स याँ मलने पे जैसे मं -साधक म त ह
शहर म होते ह दं गे , फल
ू -फल जाते ह आप
45.
क ध रहे ह कतने ह आघात हमार याद म
और नह ं अब कोई भी सौगात हमार याद म
घर के संद
ु र- व न सँजो कर, हम भी कछ
ु पल सो जाते
ऐसी भी तो कोई नह ं है रात हमार याद म
धप
ू ख़याल क खलते ह वो भी आ ख़र पघलगे
बैठ गए ह जमकर जो ' हम-पात' हमार याद म
सह जाने का, चप
ु रहने का, मतलब यह ब कल
ु भी नह ं
पलता नह है कोई भी तघात हमार याद म
सच को सच कहना था िजनको आ ख़र तक सच कहना था
क धे ह ' ज ,' वो बनकर ' सकरात
ु ' हमार याद म .
46.
ये कताब हदायत वाल
सफ़ उनके ह फ़ायद वाल
तू पकड़ सफ़ रा ता अपना
सार सड़क ह दो ख वाल
फर भी तोले थे 'पर' प रं दे ने
गो हवाएँ थीं सािज़श वाल
रा ते 'झठ
ू ' के रहे आसाँ
'सच' क राह थीं मिु कल वाल
घर के बरसात म कह हमने
ग़ज़ल ख़शरं
ु ग मौसम वाल .
47.
जो थे बलं
ु द सह फ़ैसले दलाने म
वो ल ज़ ब द ह दहशत के कारख़ाने म
जो याद आ गए ब चे , ज़ रत घर क
तमाम दद गए भल
ू कारखाने म
जड़गी
ु सीधे कह ं िज़ दगी से ये जाकर
भले ह ख़ु क़ ह ग़ज़ल ये गनगनाने
ु ु म
48.
चिु पय से ग़ज़ल बनाता है
और फर शोर को सनाता
ु है
वो जो सरदार है कबीले का
पानी माँगो तो आग लाता है
आदमी है नए ज़माने का
दो ती सबसे वो नभाता है
बन के बैठा है जो ज़माने पर
बोझ वो खद
ु कहाँ उठाता है
का लज म पढ़ा- लखा सब कछ
ु
दे खए व त या सखाता है
खोदता है वो खाइयाँ अ सर
लोग कहते ह ' पल
ु बनाता है '
49.
उघड़ी चतवन
खोल गई मन
उजले ह तन
पर मैले मन
उलझगे मन
बखरगे जन
अंदर सीलन
बाहर फसलन
हो प रवतन
बदल आसन
बेशक बन-ठन
जाने जन-जन
भरता मेला
जेब ठन-ठन
जजर चोल
उधड़ी सावन
टटा
ू छ पर
सर पर सावन
मन ख़ाल ह
लब `जन-गण-मन '
तन है दल-दल
मन है दपन
म ृ यु पोखर
झरना जीवन
नवा सत है
यँू 'जन-गण-मन'
खलनायक का
यँू अ भनंदन
' ज' क ग़ज़ल
जय ' जन-गन-मन '.
50.
चिु पयाँ िजस दन ख़बर हो जाएँगी
हि तयाँ ये दर-ब-दर हो जाएँगी
आज ह अमत
ृ मगर कल दे खना
ये दवाएँ ह ज़हर हो जाएँगी
सा हल से अब हटा लो कि तयाँ
वना तफ़ाँ
ू क नज़र हो जाएँगी
है नज़ाम-ए-अ न पर तम
ु दे खना
अ न क बात ग़दर हो जाएँगी
गर इराद म नह पु ता यक़ ं
सब दआएँ
ु बेअसर हो जाएँगी
मंिज़ल क फ़ है गर आपको
मंिज़ल ख़द
ु हमसफ़र हो जाएँगी
कछ
ु तो तीखी चीख़ डालेगी ह नींद म ख़लल
प थर के शहर से आवाज़ तो टकराई है
52.
िज़ंदगी का गीत यँू तो अब नए सरु -ताल पर है
फर भी जाने य हमार हर ख़शी
ु हड़ताल पर है
आँ धय म या कर अब अपने घर क बात भी हम
ये सम झये एक तनका मक ड़य के जाल पर है
कैसे अपनी बात लेकर आप तक पहँु चगे हम ,जब,
मसखर का एक जमघट आपक चौपाल पर है
53.
स नाटे से बढ़कर बोल , स नाट क रानी रात
सं ास क मक
ू चभन
ु को दे जाएगी बानी रात
दन तो चने
ु गा कंकर-प थर , फर ब च के जैसे ह
और कहे गी कोई क़ सा , बन जाएगी नानी रात
सार गम कछ
ु लोग ने भर ल अपने झोले म
अपने ह से म आई है ले-दे कर बफ़ानी रात
54.
सरज
ू डबा
ू है आँख म, आज है फर सँवलाई शाम
स नाटे के शोर म सहमी बैठ है पथराई शाम
55.
रात - दन हम से तो है उलझती ग़ज़ल
उनक मह फ़ल म होगी चहकती ग़ज़ल
झमती
ू लड़खड़ाती ग़ज़ल मत कहो
अब कहो ठोकर से सँभलती ग़ज़ल
ख़ामशी
ु सािज़श के शहर क सनो
ु
फर कहो सािज़श को कचलती
ु ग़ज़ल
अब मखौ
ु ट , नक़ाब के इस दौर म
िजतने चेहरे ह सबको पलटती ग़ज़ल
फर यग
ु के अँधेरे के है -ब-
इक नई रौशनी-सी उभरती ग़ज़ल
दन के हर दद से , रं ज से जझकर
ू
रात को ' ज' के घर है ठहरती ग़ज़ल.
56.
जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेह का साया है
नफ़रत क तहज़ीब ने अपना रं ग अजब दखलाया है
तमने
ु अगर था अ न ह बाँटा ,राह, गल , चौ्राह म
सनते
ु ह य नाम तु हारा हर चेहरा कु हलाया है
बात का जादगर
ू है वो , सपन का सौदागर भी
स दय से भखे
ू - यास को िजसने भी बहलाया है
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