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विवियोग

ॐ अस्य आदित्य हृियस्तोत्रस्यागस्त्यऋविरिुष्टुपछन्िः, आदित्येहृियभूतो

भगिाि ब्रह्मा िेिता विरस्ताशेिविघ्नतया ब्रह्मविद्याविद्धौ ििवत्र जयविद्धौ च विवियोगः।

ऋष्यादिन्याि

ॐ अगस्त्यऋिये िमः, वशरवि। अिुष्टुपछन्ििे िमः, मुखे। आदित्यहृियभूतब्रह्मिेितायै िमः


हृदि।

ॐ बीजाय िमः, गुह्यो। रवमममते शक्तये िमः, पाियो। ॐ तत्िवितुररत्यादिगायत्रीकीलकाय


िमः िाभौ।

करन्याि

ॐ रवमममते अंगुष्ठाभयां िमः। ॐ िमुद्यते तजविीभयां िमः।

ॐ िेिािुरिमस्कृ ताय मध्यमाभयां िमः। ॐ वििरिते अिावमकाभयां िमः।

ॐ भास्कराय कविवष्ठकाभयां िमः। ॐ भुििेश्वराय करतलकरपृष्ठाभयां िमः।

हृियादि अंगन्याि

ॐ रवमममते हृियाय िमः। ॐ िमुद्यते वशरिे स्िाहा। ॐ िेिािुरिमस्कृ ताय वशखायै ििट् ।

ॐ वििस्िते किचाय हुम्। ॐ भास्कराय िेत्रत्रयाय िौिट् । ॐ भुििेश्वराय अस्त्राय फट् ।

इि प्रकार न्याि करके विम्ांदकत मंत्र िे भगिाि िूयव का ध्याि एिं िमस्कार करिा चावहए-

ॐ भूभि
ुव ः स्िः तत्िवितुिरव े ण्यं भगो िेिस्य धीमवह वधयो यो िः प्रचोियात्।

आदित्यहृिय स्तोत्र
ततो युद्धपररश्रान्तं िमरे वचन्तया वस्ितम्।

रािणं चाग्रतो िृष्टिा युद्धाय िमुपवस्ितम्।।1।।

िैितैश्च िमागम्य द्रष्टु मभयागतो रणम्।

उपगम्याब्रिीि् राममगरत्यो भगिांस्तिा।।2।।


उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध िे िककर वचन्ता करते हुए रणभूवम में खडे िे। इतिे में रािण भी
युद्ध के वलए उिके िामिे उपवस्ित हो गया। यह िेख भगिाि अगस्त्य मुवि, जो िेिताओं के
िाि युद्ध िेखिे के वलए आये िे, श्रीराम के पाि जाकर बोले।

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं ििातिम्।

येि ििाविरीि् ित्ि िमरे विजवयष्यिे।।3।।

‘िबके हृिय में रमण करिे िाले महाबाहो राम ! यह ििाति गोपिीय स्तोत्र िुिो। ित्ि ! इिके
जप िे तुम युद्ध में अपिे िमस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।‘

आदित्यहृियं पुण्यं ििवशत्रुवििाशिम्।

जयािहं जपं वित्यमक्षयं परमं वशिम्।।4।।

ििवमग
ं लमांगल्यं ििवपापप्रणाशिम्।

वचन्ताशोकप्रशमिमायुिध
व ि
ै मुत्तमम्।।5।।

‘इि गोपिीय स्तोत्र का िाम है ‘आदित्यहृिय‘। यह परम पवित्र और िम्पूणव शत्रुओं का िाश
करिे िाला है। इिके जप िे ििा विजय की प्रावि होती है। यह वित्य अक्ष्य और परम
कल्याणमय स्तोत्र है। िम्पूणव मंगलों का भी मंगल है। इििे िब पापों का िाश हो जाता है। यह
वचन्ता और शोक को वमटािे तिा आयु को बढािे िाला उत्तम िाधि है।‘

रवमममन्तं िमुद्यन्तं िेिािुरिमस्कृ तम्।

पूजयस्ि वििस्िन्तं भास्करं भुििेश्वरम्।।6।।

‘भगिाि िूयव अपिी अिन्त दकरणों िे िुशोवभत (रवमममाि्) हैं। ये वित्य उिय होिे िाले
(िमुद्यि्), िेिता और अिुरों िे िमस्कृ त, वििस्िाि् िाम िे प्रविद्ध, प्रभा का विस्तार करिे
िाले (भास्कर) और िंिार के स्िामी (भुििेश्वर) हैं। तुम इिका (रवमममते िमः, िमुद्यते िमः,
िेिािुरिमस्कताय िमः, वििस्िते िमः, भास्कराय िमः, भुििेश्वराय िमः इि िाम मंत्रों के
द्वारा) पूजि करो।‘

ििविि
े तामको ह्येि तेजस्िी रवममभाििः।

एि िेिािुरगणााँल्लोकाि् पावत गभवस्तवभः।।7।।

‘िम्पूणव िेिता इन्हीं के स्िरूप हैं। ये तेज की रावश तिा अपिी दकरणों िे जगत को ित्ता एिं
स्फू र्तव प्रिाि करिे िाले हैं। ये ही अपिी रवममयों का प्रिार करके िेिता और अिुरों िवहत
िम्पूणव लोकों का पालि करते हैं।‘
एि ब्रह्मा च विष्णुश्च वशिः स्कन्िः प्रजापवतः।

महेन्द्रो धििः कालो यमः िोमो ह्यपां पवतः।।8।।

वपतरो िििः िाध्या अवश्विौ मरुतो मिुः।

िायुिवव न्हः प्रजाः प्राण ऋतुकताव प्रभाकरः।।9।।

‘ये ही ब्रह्मा, विष्णु, वशि, स्कन्ि, प्रजापवत, इन्द्र, कु बेर, काल, यम, चन्द्रमा, िरूण, वपतर, ििु,
िाध्य, अवश्विीकु मार, मरुिगण, मिु, िायु, अवि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करिे िाले तिा
प्रभा के पुजं हैं।‘

आदित्यः िविता िूयःव खगः पूिा गभाववस्तमाि्।

िुिणवििृशो भािुवहरण्यरे ता दििाकरः।।10।।

हररिश्वः िहस्रार्चवः िििविमवरीवचमाि्।

वतवमरोन्मििः शम्भूस्त्ष्टा मातवण्डकोंऽशुमाि्।।11।।

वहरण्यगभवः वशवशरस्तपिोऽहरकरो रविः।

अविगभोऽदितेः पुत्रः शंखः वशवशरिाशिः।।12।।

व्योमिािस्तमोभेिी ऋम्यजुःिामपारगः।

घििृवष्टरपां वमत्रो विन्ध्यिीिीप्लिंगमः।।13।।

आतपी मण्डली मृत्युः पपंगलः ििवतापिः।

कविर्िवश्वो महातेजा रक्तः ििवभिोिभिः।।14।।

िक्षत्रग्रहताराणामवधपो विश्वभाििः।

तेजिामवप तेजस्िी द्वािशात्मि् िमोऽस्तु ते।।15।।

‘इन्हीं के िाम आदित्य (अदिवतपुत्र), िविता (जगत को उत्पन्न करिे िाले), िूयव (ििवव्यापक),
खग (आकाश में विचरिे िाले), पूिा (पोिण करिे िाले), गभवस्तमाि् (प्रकाशमाि),
िुिवणििृश, भािु (प्रकाशक), वहरण्यरे ता (ब्रह्माण्ड की उत्पवत्त के बीज), दििाकर (रावत्र का
अन्धकार िूर करके दिि का प्रकाश फै लािे िाले), हररिश्व (दिशाओं में व्यापक अििा हरे रं ग के
घोडे िाले), िहस्रार्चव (हजारों दकरणों िे िुशोवभत), वतवमरोन्मिि (अन्धकार का िाश करिे
िाले), शम्भू (कल्याण के उिगमस्िाि), त्िष्टा (भक्तों का िुःख िूर करिे अििा जगत का िंहार
करिे िाले), अंशुमाि (दकरण धारण करिे िाले), वहरण्यगभव (ब्रह्मा), वशवशर (स्िभाि िे ही
िुख िेिे िाले), तपि (गमी पैिा करिे िाले), अहरकर (दििकर), रवि (िबकी स्तुवत के पात्र),
अविगभव (अवि को गभव में धारण करिे िाले), अदिवतपुत्र, शंख (आिन्िस्िरूप एिं व्यापक),
वशवशरिाशि (शीत का िाश करिे िाले), व्योमिाि (आकाश के स्िामी), तमोभेिी (अन्धकार
को िष्ट करिे िाले), ऋग, यजुः और िामिेि के पारगामी, घििृवष्ट (घिी िृवष्ट के कारण), अपां
वमत्र (जल को उत्पन्न करिे िाले), विन्ध्यीिीप्लिंगम (आकाश में तीव्रिेग िे चलिे िाले),
आतपी (घाम उत्पन्न करिे िाले), मण्डली (दकरणिमूह को धारण करिे िाले), मृत्यु (मौत के
कारण), पपंगल (भूरे रं ग िाले), ििवतापि (िबको ताप िेिे िाले), कवि (वत्रकालिशी), विश्व
(ििवस्िरूप), महातेजस्िी, रक्त (लाल रं गिाले), ििवभिोिभि (िबकी उत्पवत्त के कारण), िक्षत्र,
ग्रह और तारों के स्िामी, विश्वभािि (जगत की रक्षा करिे िाले), तेजवस्ियों में भी अवत
तेजस्िी तिा द्वािशात्मा (बारह स्िरूपों में अवभव्यक्त) हैं। (इि िभी िामों िे प्रविद्ध िूयविि
े !)
आपको िमस्कार है।‘

िमः पूिावय वगरये पवश्चमायाद्रये िमः।

ज्योवतगवणािां पतये दििावधपतये िमः।।16।।

‘पूिववगरी उियाचल तिा पवश्चमवगरर अस्ताचल के रूप में आपको िमस्कार है। ज्योवतगवणों
(ग्रहों और तारों) के स्िामी तिा दिि के अवधपवत आपको प्रणाम है।‘

जयाय जयभद्राय हयवश्वाय िमो िमः।

िमो िमः िहस्रांशो आदित्याय िमो िमः।।17।।

‘आप जय स्िरूप तिा विजय और कल्याण के िाता है। आपके रि में हरे रं ग के घोडे जुते रहते
हैं। आपको बारं बार िमस्कार है। िहस्रों दकरणों िे िुशोवभत भगिाि िूयव ! आपको बारं बार
प्रणाम है। आप अदिवत के पुत्र होिे के कारण आदित्य िाम िे प्रविद्ध है, आपको िमस्कार है।‘

िम उग्राय िीराय िारं गाय िमो िमः।

िमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय िमोऽस्तु ते।।18।।

‘(परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, वशि और विष्णु के भी स्िामी हैं। िूर आपकी िंज्ञा हैं, यह
िूयमव ण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश िे पररपूणव हैं, िबको स्िाहा कर िेिे िाला अवि
आपका ही स्िरूप है, आप रौद्ररूप धारण करिे िाले हैं, आपको िमस्कार है।‘

तमोघ्नाय वहमघ्नाय शत्रुघ्नायावमतात्मिे।

कृ तघ्नघ्नाय िेिाय ज्योवतिां पतये िमः।।20।।


‘आप अज्ञाि और अन्धकार के िाशक, जडता एिं शीत के वििारक तिा शत्रु का िाश करिे िाले
हैं, आपका स्िरूप अप्रमेय है। आप कृ तघ्नों का िाश करिे िाले, िम्पूणव ज्योवतयों के स्िामी और
िेिस्िरूप हैं, आपको िमस्कार है।‘

तिचामीकराभाय हस्ये विश्वकमवण।े

िमस्तमोऽवभविघ्नाय रुचये लोकिावक्षणे।।21।।

‘आपकी प्रभा तपाये हुए िुिणव के िमाि है, आप हरर (अज्ञाि का हरण करिे िाले) और
विश्वकमाव (िंिार की िृवष्ट करिे िाले) हैं, तम के िाशक, प्रकाशस्िरूप और जगत के िाक्षी हैं,
आपको िमस्कार है।‘

िाशयत्येि िै भूतं तमेि िृजवत प्रभुः।

पायत्येि तपत्येि ििवत्येि गभवस्तवभः।।22।।

‘रघुिन्िि ! ये भगिाि िूयव ही िम्पूणव भूतों का िंहार, िृवष्ट और पालि करते हैं। ये ही अपिी
दकरणों िे गमी पहुाँचाते और ििाव करते हैं।‘

एि िुिि
े ु जागर्तव भूति
े ु पररविवष्ठतः।

एि चैिाविहोत्रं च फलं चैिाविहोवत्रणाम्।।23।।

‘ये िब भूतों में अन्तयावमीरूप िे वस्ित होकर उिके िो जािे पर भी जागते रहते हैं। ये ही
अविहोत्र तिा अविहोत्री पुरुिों को वमलिे िाले फल हैं।‘

िेिाश्च क्रतिश्चैि क्रतूिां फलमेि च।

यावि कृ त्यावि लोके िु ििेिु परमप्रभुः।।24।।

‘(यज्ञ में भाग ग्रहण करिे िाले) िेिता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। िम्पूणव लोकों में
वजतिी दक्रयाएाँ होती हैं, उि िबका फल िेिे में ये ही पूणव िमिव हैं।‘

एिमापत्िु कृ च्छ्रेिु कान्तारे िु भयेिु च।

कीतवयि् पुरुिः कवश्चन्नाििीिवत राघि।।25।।

‘राघि ! विपवत्त में, कष्ट में, िुगवम मागव में तिा और दकिी भय के अििर पर जो कोई पुरुि इि
िूयविि े का कीतवि करता है, उिे िुःख िहीं भोगिा पडता।‘

पूजयस्िैिमेकाग्रो िेििेिं जगत्पवतम्।


एतत् वत्रगुवणतं जििा युद्धि
े ु विजवयवष्त।।26।।

‘इिवलए तुम एकाग्रवचत होकर इि िेिावधिेि जगिीश्वर की पूजा करो। इि आदित्य हृिय का
तीि बार जप करिे िे तुम युद्ध में विजय पाओगे।‘

अवस्मि् क्षणे महाबाहो रािणं त्िं जवहष्यवि।

एिमुक्तत्िा ततोऽगस्त्यो जगाम ि यिागतम्।।27।।

‘महाबाहो ! तुम इिी क्षण रािण का िध कर िकोगे।‘ यह कहकर अगस्त्य जी जैिे आये िे, उिी
प्रकार चले गये।

एतच्छ्ुत्िा महातेजा, िष्टशोकोऽभित् तिा।

धारयामाि िुप्रीतो राघिः प्रयतात्मिाि्।।28।।

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्िि


े ं परं हिवमिाििाि्।

वत्रराचम्य शुवचभूत्व िा धिुरािाय िीयविाि्।।29।।

रािणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयािे िमुपागमत्।

ििवयत्नेि महता िृतस्तस्य िधेऽभित्।।30।।

उिका उपिेश िुिकर महातेजस्िी श्रीरामचन्द्रजी का शोक िूर हो गया। उन्होंिे प्रिन्न होकर
शुद्धवचत्त िे आदित्यहृिय को धारण दकया और तीि बार आचमि करके शुद्ध हो भगिाि िूयव
की ओर िेखते हुए इिका तीि बार जप दकया। इििे उन्हें बडा हिव हुआ। दफर परम पराक्रमी
रघुिािजी िे धिुि उठाकर रािण की ओर िेखा और उत्िाहपूिवक विजय पािे के वलए िे आगे
बढे। उन्होंिे पूरा प्रयत्न करके रािण के िध का विश्चय दकया।

अि रविरििवन्नरीक्ष्य रामं मुदितिाः परमं प्रहृष्यमाणः।

विवशचरपवतिंक्षयं विदित्िा िुरगणमध्यगतो िचस्त्िरे वत।।31।।

उि िमय िेिताओं के मध्य में खडे हुए भगिाि िूयव िे प्रिन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर िेखा
और विशाचराज रािण के वििाश का िमय विकट जािकर हिवपि ू वक कहा ‘रघुिन्िि ! अब
जल्िी करो‘।

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