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ऋष्यादिन्याि
करन्याि
हृियादि अंगन्याि
ॐ रवमममते हृियाय िमः। ॐ िमुद्यते वशरिे स्िाहा। ॐ िेिािुरिमस्कृ ताय वशखायै ििट् ।
इि प्रकार न्याि करके विम्ांदकत मंत्र िे भगिाि िूयव का ध्याि एिं िमस्कार करिा चावहए-
ॐ भूभि
ुव ः स्िः तत्िवितुिरव े ण्यं भगो िेिस्य धीमवह वधयो यो िः प्रचोियात्।
आदित्यहृिय स्तोत्र
ततो युद्धपररश्रान्तं िमरे वचन्तया वस्ितम्।
‘िबके हृिय में रमण करिे िाले महाबाहो राम ! यह ििाति गोपिीय स्तोत्र िुिो। ित्ि ! इिके
जप िे तुम युद्ध में अपिे िमस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।‘
ििवमग
ं लमांगल्यं ििवपापप्रणाशिम्।
वचन्ताशोकप्रशमिमायुिध
व ि
ै मुत्तमम्।।5।।
‘इि गोपिीय स्तोत्र का िाम है ‘आदित्यहृिय‘। यह परम पवित्र और िम्पूणव शत्रुओं का िाश
करिे िाला है। इिके जप िे ििा विजय की प्रावि होती है। यह वित्य अक्ष्य और परम
कल्याणमय स्तोत्र है। िम्पूणव मंगलों का भी मंगल है। इििे िब पापों का िाश हो जाता है। यह
वचन्ता और शोक को वमटािे तिा आयु को बढािे िाला उत्तम िाधि है।‘
‘भगिाि िूयव अपिी अिन्त दकरणों िे िुशोवभत (रवमममाि्) हैं। ये वित्य उिय होिे िाले
(िमुद्यि्), िेिता और अिुरों िे िमस्कृ त, वििस्िाि् िाम िे प्रविद्ध, प्रभा का विस्तार करिे
िाले (भास्कर) और िंिार के स्िामी (भुििेश्वर) हैं। तुम इिका (रवमममते िमः, िमुद्यते िमः,
िेिािुरिमस्कताय िमः, वििस्िते िमः, भास्कराय िमः, भुििेश्वराय िमः इि िाम मंत्रों के
द्वारा) पूजि करो।‘
ििविि
े तामको ह्येि तेजस्िी रवममभाििः।
‘िम्पूणव िेिता इन्हीं के स्िरूप हैं। ये तेज की रावश तिा अपिी दकरणों िे जगत को ित्ता एिं
स्फू र्तव प्रिाि करिे िाले हैं। ये ही अपिी रवममयों का प्रिार करके िेिता और अिुरों िवहत
िम्पूणव लोकों का पालि करते हैं।‘
एि ब्रह्मा च विष्णुश्च वशिः स्कन्िः प्रजापवतः।
‘ये ही ब्रह्मा, विष्णु, वशि, स्कन्ि, प्रजापवत, इन्द्र, कु बेर, काल, यम, चन्द्रमा, िरूण, वपतर, ििु,
िाध्य, अवश्विीकु मार, मरुिगण, मिु, िायु, अवि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करिे िाले तिा
प्रभा के पुजं हैं।‘
व्योमिािस्तमोभेिी ऋम्यजुःिामपारगः।
िक्षत्रग्रहताराणामवधपो विश्वभाििः।
‘इन्हीं के िाम आदित्य (अदिवतपुत्र), िविता (जगत को उत्पन्न करिे िाले), िूयव (ििवव्यापक),
खग (आकाश में विचरिे िाले), पूिा (पोिण करिे िाले), गभवस्तमाि् (प्रकाशमाि),
िुिवणििृश, भािु (प्रकाशक), वहरण्यरे ता (ब्रह्माण्ड की उत्पवत्त के बीज), दििाकर (रावत्र का
अन्धकार िूर करके दिि का प्रकाश फै लािे िाले), हररिश्व (दिशाओं में व्यापक अििा हरे रं ग के
घोडे िाले), िहस्रार्चव (हजारों दकरणों िे िुशोवभत), वतवमरोन्मिि (अन्धकार का िाश करिे
िाले), शम्भू (कल्याण के उिगमस्िाि), त्िष्टा (भक्तों का िुःख िूर करिे अििा जगत का िंहार
करिे िाले), अंशुमाि (दकरण धारण करिे िाले), वहरण्यगभव (ब्रह्मा), वशवशर (स्िभाि िे ही
िुख िेिे िाले), तपि (गमी पैिा करिे िाले), अहरकर (दििकर), रवि (िबकी स्तुवत के पात्र),
अविगभव (अवि को गभव में धारण करिे िाले), अदिवतपुत्र, शंख (आिन्िस्िरूप एिं व्यापक),
वशवशरिाशि (शीत का िाश करिे िाले), व्योमिाि (आकाश के स्िामी), तमोभेिी (अन्धकार
को िष्ट करिे िाले), ऋग, यजुः और िामिेि के पारगामी, घििृवष्ट (घिी िृवष्ट के कारण), अपां
वमत्र (जल को उत्पन्न करिे िाले), विन्ध्यीिीप्लिंगम (आकाश में तीव्रिेग िे चलिे िाले),
आतपी (घाम उत्पन्न करिे िाले), मण्डली (दकरणिमूह को धारण करिे िाले), मृत्यु (मौत के
कारण), पपंगल (भूरे रं ग िाले), ििवतापि (िबको ताप िेिे िाले), कवि (वत्रकालिशी), विश्व
(ििवस्िरूप), महातेजस्िी, रक्त (लाल रं गिाले), ििवभिोिभि (िबकी उत्पवत्त के कारण), िक्षत्र,
ग्रह और तारों के स्िामी, विश्वभािि (जगत की रक्षा करिे िाले), तेजवस्ियों में भी अवत
तेजस्िी तिा द्वािशात्मा (बारह स्िरूपों में अवभव्यक्त) हैं। (इि िभी िामों िे प्रविद्ध िूयविि
े !)
आपको िमस्कार है।‘
‘पूिववगरी उियाचल तिा पवश्चमवगरर अस्ताचल के रूप में आपको िमस्कार है। ज्योवतगवणों
(ग्रहों और तारों) के स्िामी तिा दिि के अवधपवत आपको प्रणाम है।‘
‘आप जय स्िरूप तिा विजय और कल्याण के िाता है। आपके रि में हरे रं ग के घोडे जुते रहते
हैं। आपको बारं बार िमस्कार है। िहस्रों दकरणों िे िुशोवभत भगिाि िूयव ! आपको बारं बार
प्रणाम है। आप अदिवत के पुत्र होिे के कारण आदित्य िाम िे प्रविद्ध है, आपको िमस्कार है।‘
‘(परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, वशि और विष्णु के भी स्िामी हैं। िूर आपकी िंज्ञा हैं, यह
िूयमव ण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश िे पररपूणव हैं, िबको स्िाहा कर िेिे िाला अवि
आपका ही स्िरूप है, आप रौद्ररूप धारण करिे िाले हैं, आपको िमस्कार है।‘
‘आपकी प्रभा तपाये हुए िुिणव के िमाि है, आप हरर (अज्ञाि का हरण करिे िाले) और
विश्वकमाव (िंिार की िृवष्ट करिे िाले) हैं, तम के िाशक, प्रकाशस्िरूप और जगत के िाक्षी हैं,
आपको िमस्कार है।‘
‘रघुिन्िि ! ये भगिाि िूयव ही िम्पूणव भूतों का िंहार, िृवष्ट और पालि करते हैं। ये ही अपिी
दकरणों िे गमी पहुाँचाते और ििाव करते हैं।‘
एि िुिि
े ु जागर्तव भूति
े ु पररविवष्ठतः।
‘ये िब भूतों में अन्तयावमीरूप िे वस्ित होकर उिके िो जािे पर भी जागते रहते हैं। ये ही
अविहोत्र तिा अविहोत्री पुरुिों को वमलिे िाले फल हैं।‘
‘(यज्ञ में भाग ग्रहण करिे िाले) िेिता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। िम्पूणव लोकों में
वजतिी दक्रयाएाँ होती हैं, उि िबका फल िेिे में ये ही पूणव िमिव हैं।‘
‘राघि ! विपवत्त में, कष्ट में, िुगवम मागव में तिा और दकिी भय के अििर पर जो कोई पुरुि इि
िूयविि े का कीतवि करता है, उिे िुःख िहीं भोगिा पडता।‘
‘इिवलए तुम एकाग्रवचत होकर इि िेिावधिेि जगिीश्वर की पूजा करो। इि आदित्य हृिय का
तीि बार जप करिे िे तुम युद्ध में विजय पाओगे।‘
‘महाबाहो ! तुम इिी क्षण रािण का िध कर िकोगे।‘ यह कहकर अगस्त्य जी जैिे आये िे, उिी
प्रकार चले गये।
उिका उपिेश िुिकर महातेजस्िी श्रीरामचन्द्रजी का शोक िूर हो गया। उन्होंिे प्रिन्न होकर
शुद्धवचत्त िे आदित्यहृिय को धारण दकया और तीि बार आचमि करके शुद्ध हो भगिाि िूयव
की ओर िेखते हुए इिका तीि बार जप दकया। इििे उन्हें बडा हिव हुआ। दफर परम पराक्रमी
रघुिािजी िे धिुि उठाकर रािण की ओर िेखा और उत्िाहपूिवक विजय पािे के वलए िे आगे
बढे। उन्होंिे पूरा प्रयत्न करके रािण के िध का विश्चय दकया।
उि िमय िेिताओं के मध्य में खडे हुए भगिाि िूयव िे प्रिन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर िेखा
और विशाचराज रािण के वििाश का िमय विकट जािकर हिवपि ू वक कहा ‘रघुिन्िि ! अब
जल्िी करो‘।