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खाद सुरका का िलंगभेदी सवर

कुमार नरेनद िसंह

िजस तरह यह एक आम धारणा है िक गरीबी की कोई जाित नही होती उसी तरह
एक आम धारणा यह भी है िक भूख एक नपूंसक िलंग है लेिकन उकत दोनो
धारणाएं गलत है और भारत के संदभर मे तो पूरी तरह गलत है। भारत मे गरीबी
की जाित होती है और भूख की अवधारणा और समझदारी िलंगभेद पर आधािरत
होती है। अगर ऐसा नही होता, तो देश की सभी छोटी जाितया कमोबेश गरीब नही
होती और न मिहलाओं को पिरवार के अनय सदसयो के भी िहससे की भूख सहने
के िलए अिभशपत नही होना पडता। ऐसे मे अगर मिहला छोटी जाित की है, तब
तो उसे भूख की समसया से और भी जयादा जूझना होगा। अकारण नही िक हमारी
मानयताएं और सामािजक वयवहार मिहलाओं के िवरद है और िवरद है शूदो के
भी। खाद उतपादन की रीढ बनी मिहलाएं सवयं भूखी रहकर दुिनया का पेट भरती
है। अनपूणा सवयं भूखी है।
आंकडे बताते है िक दुिनया भर मे सबसे जयादा भूख की मार मिहलाएं ही सहती
है। िपछले साल राषटसंघ िवश खाद कायरकम दारा जारी एक िरपोटर के अनुसार
िवश की कुल कुपोिषत आबादी का 27 फीसदी िहससा भारत मे रहता है और पाच
साल से कम उम के 43 पितशत बचचे औसत से कम वजन के है। मालूम हो िक
यह पितशत दुिनया के उचचतम सतर से भी जयादा है, यहा तक िक सब-सहारा
(सहारा मरभूिम के दिकण मे बसे देश) के देशो से भी। वहा औसत से कम वजन
के 28 पितशत बचचे है, जबिक वैिशक सतर पर कम वजन के बचचो की आबादी
25 पितशतर है। इसी तरह पाच साल से कम उम के लगभग 70 पितशत
बचचे एनीिमया के िशकार है, यानी खून की कमी से पीिडत है। देश के
गयारह राजयो मे िसथित इतनी खराब है िक वहा के 80 पितशत बचचे
एनीिमया से गसत है।उकत आंकडो को यिद धयान से देख,े तो वे जो
नजर आते है उससे कुछ ईतर इशारा करते है और वह इस तरफ इशारा
करते है िक इन सबके पीछे मिहला को पयापत आहार नही िमलता है।
दरअसल, भारत मे मिहलाओं को पयापत पौिषक भोजन कम ही
नसीब होता है। भोजन मे कमी का पहला और िवदूप िशकार वही बनती
है। यह हमारे समाज का मानयता पापत वयवहार बन गया है िक मिहलाएं
कम खाएंगी, कम पौिषक आहार खाएंगी और अंत मे खाएंगी। यह कम
पौिषक आहार िमलने का ही नतीजा है िक भारत मे पुरषो की तुलना मे
दुगुनी मिहलाएं एनीिमया की िशकार है। देश के िकसी भी असपताल के
जचचा-बचचा (मैटरिनटी) िवभाग मे इस तथय का सतयापन िकया जा
सकता है। सच तो यह है िक बचपन से लेकर मा बनने तक उनहे कभी
संतुिलत औऱ पौिषक आहार नही िमलता और िजन मिहलाओं को िमलता
है उनका खाद उतपादन मे कोई योगदान नही होता। दूसरे शबदो मे िजन
मिहलाओं को पौिषक आहार लेने की जररत है उनहे नही िमलता। जब
मा सवयं ही कुपोषण की िशकार हो तो जािहर है िक उसका बचचा भी
कुपोिषत ही पैदा होगा। कुपोिषत बचचो के सवसथय खराब रहने की पबल
आशंका रहती है और वे सकूल, कॉलेज मे भी बेहतर पदशरन नही कर
पाते। इसका सीधा और दोहरा पभाव देश की अथरवयवसथा पर पडता
है। एक तो िक कुपोिषत बचचे कम कमा पाते है और दूसरा िक मेिडकल
खचर बढ जाता है।
गरीबी और भूख एक ही िसके के दो पहलू है और दोनो मे ही एक
औरत का चेहरा है कयोिक दोनो ही पहलू िलंगभेद और असमान शिकत-
संबधं ो पर आधािरत है। सच तो यह है िक पािरवािरक संबध ं समेत सभी
सामािजक संबध ं शिकत-संबध ं है, िजसमे मिहलाएं अंितम पायदान पर
खडी है। अब सवाल उठता है िक यह असमान शिकत-संबध ं गरीबी और
भूख से िकस पकार जुडा है। इसका उतर हम अपने पिरवार मे पचिलत
वयवहारो से आसानी से ढू ंढ सकते है। यह जानने के िलए िकसी शोध
की आवशयकता नही है िक जब घर मे सीिमत या कम खाना होता है, तो
सबसे पहले मिहलाएं ही अपने खाने मे कटौती करती है, तािक पिरवार के
अनय सदसयो जो आवशयक रप से पुरष होते है, को खाना िमल सके।
घर मे खाने पर पथम पुरष का होता है। उसके बाद बालक, िफर
बािलका और अंत मे मिहलाओं का नंबर आता है। घर की मालिकन के
िहससे बहुधा अंितम कौर ही आता है।
सबसे आसचयर तो इस बात का है िक उकत पचिलत वयवहार को
िबलकुल सहज और उिचत समझा जाता है। इसका कारण यह है िक
समाज मे यह पचिलत वयवहार हमारी पारंपिरक समझदारी पर आधािरत
है। सवयं मिहलाओं को भी इसमे कुछ अनयथा नही लगता। वैसे इसके
िलए उनहे दोष भी नही िदया जा सकता कयोिक सिदयो की सामािजक
परंपराओं, रीित-िरवाजो, िवशासो और मानयताओं ने उनकी चेतना को कु ंद
कर रखा है, इसिलए चाहकर भी वे अपने सवतंत अिसततव एवं सोच की
कलपना तक नही कर पाती। इसके पीछे एक और परंपरावादी समझदारी
िजममेदार है और वह यह िक चूंिक िपता ही पिरवार के िलए रोटी का
जुगाड करता है, इसिलए वह िवशेष आदरपूणर वयवहार का अिधकारी है।
यह अलग बात है िक मिहलाओं की मेहनत से ही अनाज भोजन बनकर
हमारी थाली मे पहंुचता है। मिहलाएं ही पिरवार के िलए खाना बनाती है
और यह सुिनिशत करती है िक पिरवार के सभी सदसयो के िलए हर
समय घर मे खाना उपलबध हो। गरीब घरो की मिहलाओं के िलए यह
िजममेदारी िनभाना और भी किठन होता है कयोिक पिरवार की आय बहुत
कम होती है। इसके बावजूद भोजन का इंतजाम उनहे ही करना होता
है।
भोजन के इंतजाम मे मिहलाओं का योगदान िसफर पिरवार तक ही
सीिमत नही है बिलक िवश सतर पर भी खादान उतपादन की महती
िजममेदारी उनही के तथाकिथत कमजोर काधो पर िटकी है। राषटसंघ
खाद उतपादन कायरकम एजेसी (यूएनएफपी) के आंकडे बताते है िक
अफीका के सब-सहारा के देशो मे 80-90 पितशत खादान का उतपादन
मिहलाएं करती है। इसी तरह एिशया मे 50-60 पितशत, कैिरिबयाई देशो
मे 46 पितशत औऱ लैिटन अमेिरकी देशो मे 30 पितशत खादान क
उतपादन मिहलाएं करती है।
जहा तक भारत की बात है, तो देश की कुल कामगार मिहलाओं
की आबादी का 80 पितशत िहससा कृिष कायों मे संलगन है जबिक िसफर
10 पितशत मिहलाओं के पास ही जमीन का मािलकाना हक है और वह
भी उस िसथित मे जब मिहला िवधवा हो या उसका कोई बािलग बेटा न
हो। खाद समसया से दो-दो हाथ करती इन मिहलाओं को खेती की
सुिवधा के नाम पर हर चीज की मनाही है। न तो उनहे बैको से कजर
िमल पाता है और न फसल के िलए खाद। िकसी पकार के पिशकण का
तो सवाल ही नही उठता। हद तो यह है िक वे िकसान की संजा तक से
महरम कर दी गई है। पूरी दुिनया मे िकसान के रप मे िसफर पुरष की
ही पहचान है। पिरवार औऱ समाज के िलए खाद उतपादन से लेकर उस
पिरषकृत करने और भोजन तैयार करके थाली मे परोसकर डाइिनंग
टेबल तक पहंुचाने की सारी िजममेदारी िनभाने के बावजूद बहुधा उनही के
खाने मे कटौती होती है।
ऐसे मे मिहलाओं के िलए खाद सुरका का वही मतलब नही हो
सकता जो पुरषो के िलए है। केद सरकरा ने खाद सुरका के नाम पर
जो वयवसथा की है उसमे गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले एक पिरवार को
तीन रपए पित िकलोगाम के िहसाब से िसफर 35 िकलोगाम चावल या गेहूं
िमलेगा। यह माता एक पिरवार के िलए ऊंट के मूंह मे जीरा के समान
है। इतना भोजन तो मेहनत-मशकत करने वाले िकसी एक अकेले के
िलए भी कम पडेगा। ऐसे मे एक पूरे पिरवार का भूख िमटाना कैसे संभव
हो सकता है। जािहर है िक तब मिहलाओं को ही अपने खाने मे कटौती
करनी होगी। इससे भी अहम बात यह है िक कया िसफर चावल या गेहंू से
ही पौिषक आहार की जररत पूरी हो जाएगी? सपष है िक इसका उतर
नकारातमक ही हो सकता है। पुरषो की बिनसपत मिहलाओं को पयापत
और पौिषक आहार लेने की जयादा जररत होती है। गभावसथा के
दौरान तो यह आवशयकता औऱ भी बढ जाती है। पेट काटकर या
पौिषक आहार न खाकर िसतया िजंदा तो रह सकती है लेिकन एक
सवसथ बचचा नही जन सकती। इतना ही नही, मिहलाओं का सवासथय
अगर खराब होता है, तो इसका सीधा नकारातमक पभाव पिरवार के
सदसयो पर पडता है. चूंिक भारत मे अिधकाश मिहलाएं कृिष कायों से
जुडी है, इसिलए खादान उतपादन पर भी इसका बुरा असर पडता है।
अत: पयापत और पौिषक आहार न िसफर मिहलाओं और आनेवाली पीढी
के िलए जररी है बिलक खाद सुरका सुिनिशत करने के िलए भी जररी
है। खाद सुरका मे खादान की उपलबधता के साथ-साथ उस तक लोगो
की पहंुच भी शािमल है। खादान से भंडार भरा रहने के बावजूद लोग
भूखे मर सकते है औऱ ऐसा होते हम अपने खुद के देश मे देख रहे है।
सुपीम कोटर की लताड और आदेश के बावजूद सरकार के कान पर जूं
तक नही रेग सकी। कया मिहलाओं को पयापत और पौिषक आहार तक
पहंुच सुिनिशत करने का वकत नही आ गया है?

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