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सुख से िवचर !
कूटःथ हँू अ ै त हँू , म बोध हँू म िनत्य हँू ।
अ य तथा िनःसंग आत्मा, एक शा त ् सत्य हँू ।।
नहीं दे ह हँू नहीं इ न्ियाँ, हँू ःवच्छ से भी ःवच्छतर।
ऐसी िकया कर भावना, िनःशोक हो सुख से िवचर।।1।।
म दे ह हँू फाँसी महा, इस पाप में जकड़ा गया।
िचरकाल तक िफरता रहा, जन्मा िकया िफर मर गया।।
'म बोध हँू ' ज्ञाना ले, अज्ञान का दे काट सर।
ःवछन्द हो, िन र् न् हो, आनन्द कर सुख से िवचर।।2।।
िन ंबय सदा िनःसंग तू, क ार् नहीं भो ा नहीं।
िनभर्य िनरं जन है अचल, आता नहीं जाता नहीं।।
मत राग कर मत े ष कर, िचन्ता रिहत हो जा िनडर।
आशा िकसी की क्यों करे , संत ृ हो सुख से िवचर।।3।।
यह िव तुझसे या है , तू िव में भरपूर है ।
तू वार है तू पार है , तू पास है तू दरू है ।।
उ र तू ही द ण तू ही, तू है इधर तू है उधर।
दे त्याग मन की ि
ु ता, िनःशंक हो सुख से िवचर।।4।।
िनरपे ा सवर् का, इस ँय से तू अन्य है ।
अ ु ध है िचन्माऽ है , सुख-िसन्धु पूणर् अनन्य है ।।
छः ऊिमर्यों से है रिहत, मरता नहीं तू है अमर।
ऐसी िकया कर भावना, िनभर्य सदा सुख से िवचर।।5।।
आकार िम या जान सब, आकार िबन तू है अटल।
जीवन मरण है क पना, तू एकरस िनमर्ल अटल।।
यों जेवरी में सपर् त्यों, अध्यःत तुझमें चर अचर।
ऐसी िकया कर भावना, िन न्त हो सुख से िवचर।।6।।
दपर्ण धरे जब सामने, तब माम उसमें भासता।
दपर्ण हटा लेते जभी, तब माम होता लापता।।
यों माम दपर्ण माँिह तुझमें, िव त्यों आता नजर।
संसार को मत दे ख, िनज को दे ख तू सुख से िवचर।।7।।
ूाज्ञ-वाणी
म हँू िनरं जन शांत िनमर्ल, बोध माया से परे ।
हँू काल का भी काल म, मन-बुि -काया से परे ।।
म त व अपना भूलकर, यामोह में था पड़ गया।
ौृित संत गु ई र-कृ पा, सब मु बन्धन से भया।।1।।
जैसे ूकाशूँ दे ह म, त्यों ही ूकाशूँ िव सब।
हँू इसिलए म िव सब, अथवा नहीं हँू िव अब।।
सशरीर सारे िव का है , त्याग मने कर िदया।
सब ठोर म ही दीखता हँू , ॄ केवल िनत नया।।2।।
जैसे तरं गे तार बुदबुद, िसन्धु से नहीं िभन्न कुछ।
मुझ आत्म से उत्पन्न जग, मुझमें नहीं है अन्य कुछ।।
यों तन्तुओं से िभन्न पट की, है नहीं स ा कहीं।
मुझ आत्म से इस िव की, त्यों िभन्न स ा है नहीं।।3।।
यों ईख के रस माँिहं शक्कर, या होकर पूणर् है ।
आनन्दघन मुझ आत्म से, सब िव त्यों प रपूणर् है ।।
अज्ञान से यों र जु अिह हो, ज्ञान से हट जाय है ।
अज्ञान िनज से जग बना, िनज ज्ञान से िमट जाय है ।।4।।
जब है ूकाशक त व मम तो, क्यों न होऊँ ूकाश म।
जब िव भर को भासता, तो आप ही हँू भास म।।
यों सीप में चाँदी मृषा, म भूिम में पानी यथा।
अज्ञान से क पा हआ
ु , यह िव मुझमें है तथा।।5।।
यों मृि का से घट बने, िफर मृि का में होय लय।
उठती यथा जल से तरं गे, होय िफर जल में िवलय।।
कंकण कटक बनते कनक से, लय कनक में हो यथा।
मुझसे िनकलकर िव यह, मुझ माँिहं लय होता तथा।।6।।
होवे ूलय इस िव का, मुझको न कुछ भी ऽास है ।
ॄ ािद सबका नाश हो, मेरा न होता नाश है ।।
म सत्य हँू म ज्ञान हँू , म ॄ दे व अनन्त हँू ।
कैसे भला हो भय मुझे, िनभर्य सदा िन त
ं हँू ।।7।।
सब हािन-लाभ समान है
संसार क पत मानता, नहीं भोग में अनुरागता।
स पि पा नहीं हषर्ता, आपि से नहीं भागता।।
िनज आत्म में संत ृ है , नहीं दे ह का अिभमान है ।
ऐसे िववेकी के िलए, सब हािन-लाभ समान है ।।1।।
सुख-दःख
ु दोनों जान सम, आशा-िनराशा एक सी।
जीवन-मरण भी एक-सा, िनंदा-ूशंसा एक-सी।।
हर हाल में खुशहाल रह, िन र् न् िचन्ताहीन हो।
मत ध्यान कर तू अन्य का, बस आपमें लवलीन हो।।4।।
इच्छा िबना ही मु है
ममता नहीं सुत दार में, नहीं दे ह में अिभमान है ।
िनन्दा ूशंसा एक-सी, सम मान अ अपमान है ।।
जो भोग आते भोगता, होता न िवषयास है ।
िनवार्सना िन र् न् सो, इच्छा िबना ही मु है ।।1।।